Wednesday, June 8, 2011

बाबा रामदेव पहली बार बैकफुट पर दिख रहे है

पिछले १५ सालो से फ्रंत्फुत पर खेल रहे बाबा रामदेव पहली बार बैकफुट पर दिख रहे है। अपने लगभग हर योग शिविर में नेताओ को अपने अंदाज़ में कोसने वाले बाबा घिरा महसूस कर रहे है....केंद्र सरकार ने इनके सभी सत्ता प्रतिष्ठानों कि जांच के भी आदेश दे दिए है...पतंजलि योग पीठ कि जमीन की फर्जी रजिस्ट्री का मामला, योगग्राम के लिए २८ से अधिक चरवाहों के गावो कि जमीं हथियाने का मामला, हथियार लाइसेंस, पासपोर्ट, विश्वविद्यालय, देश विदेश में फैली २०० से अधिक कम्पनियो का मामला.....अब बाबा सोच रहे है कि पहले खुद को बचाऊ या देश को......

Monday, May 30, 2011

कायदों का मजाक बनाती उत्तराखंड मित्र पुलिस

वैसे तो यह हर जगह होता होगा लेकिन देहरादून में यह आम बात है। यहाँ यातायात को सुचारू करने कि जिम्मेदारी उठाने वाले ही उसकी धज्जिया उढ़ा रहे है । शहर में चले वाले विक्रमो में आगे एक ही सवारी बैठने का नियम है। एसा ना करने पर पुलिस वाले चालान करते है जो १०० से २५०० तक कितना भी हो सकता है। लेकिन एक बिडम्बना यह भी है कि जब पुलिस वालो को कही जाना होता है तब वे आगे बैठी सवारी को धक्का देकर उसमे ही दो बैठ जाते है। यहाँ कोई कायदा नहीं उल्टा पुलिस वाले किराया भी नहीं देते ...कोई हिम्मत करके मांगे तो नो नोट आगे चालन...यहाँ है पुलिस....उत्तराखंड मित्र पुलिस

विक्रम वालो से हारी उत्तराखंड सरकार

JNnurm जवाहर लाल नेहरु रास्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन को केंद्र सरकार की महत्वाकांसी योजना बताया जाता है। यह योजना केंद्र सरकार द्वारा देश के लगभग सभी शहरो में चलायी जा रही है। उत्तराखंड के देहरादून, हरिद्वार और नैनीताल शहरो को इस योजना के तहत चुना गया था। योजना का उध्येस्य इन शहरो में बुनियादी सुविधाहो के विस्तार के साथ ही परिवहन कि सुविधा भी ठीक करना था। इसीलिए देहरादून शहर के लिए योजना के तहत २०० लो फ़लूर बस केंद्र सरकार ने राज्य हो भेजी। कायदे से इन बसों को देहरादून शहर के अन्दर ही चलना था जिस्स्से कि लोगो को जाम से तो निजात मिलती ही उन्हें समय पर वहां भी उपलब्ध हो जाते लेकिन यहाँ देहरादून में चल रहे विक्रमवालो की लौबी इतनी मज़बूत है कि सरकार उनके आगे झुटने टेकते हुए यह बसे हरिद्वार, देहरादून और ऋषिकेश चला रही है। जहा पहले से ही दर्ज़नो बसे लगी है। हालाँकि हाल फिलहाल ये बसे घाटे में नहीं चल रही है लेकिन इससे देहरादून शहर कि जानता को जो फायदा मिलना था वह तो नहीं मिल पा रहा है ... इतना ही नहीं शहर कि जनता विक्रम वालो कि जो मनमानी झेल रही है उसका हिसाब कैसे लगेगा..

कुम्भ के दौरान हुई गड़बड़िया बनी निशंक सरकार की फांस

कुम्भ के दौरान हुई गड़बड़िया उत्तराखंड कि निशंक सरकार के गले की फांस बन गयी है। कुम्भ ख़तम होते समय तो निशंक इसकी सफलता के लिए नोबेल पुरूस्कार मांग रहे थे, लेकिन जब से सीएजी ने इस मामले में संगीन सवाल उठाये हैतबसे अब निशंक साहब की बोलती बंद हैकुम्भ के समय तो उन्हें और उनकी गेंग को लग रहा था कि खेल ख़तम पैसा हज़म, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं हो पाया और पूरे कुम्भ के दौरान सीएजी हरिद्वार सहित पुरे मेला छेत्र में नज़र गढ़ाए रही और कुम्भ ख़त्म होते ही उसने सरकार की पल खोल दी। पिछले दिनों विधान सभा के पटल पर राखी गयी इस रिपोर्ट के बाद प्रदेश में सियासत का रंग लाल हो गया है। चुनावी साल से ठीक पहले इस तरह के खुलासे ने भाजपा को परेशानी में दाल दिया है। भले ही भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व अभी निशंक पर ही भरोसा जता रहा हो लेकिन एक के बाद एक हो रहे घोटालो के खुलासो ने पार्टी को भी सोचने पर विवश कर दिया है। एक तो विकल्प हीनता और दूसरा पहले ही पार्टी एक बार नेतृत्व परिवर्तन कर चुकी है इसे में यह तो तय है अगले चुनाव (जनवरी या फ़रवरी २०१२) तक निशंक ही सीएम होंगे लेकिन पार्टी ने अब सामूहिक नेतृत्व की बाद कह दी है। इसे निशंक के पर कतरना न भी समझा जाए तो इतना तो कहा ही जा सकता है कि निशंक जी अब वो बात नहीं हो..कुम्भ में हुई गड़बड़ियो को इसलिए भी बड़ा माना जा रहा है कि यहाँ सरकार ने केवल १००० करोड़ खर्च किये और उस पर २०० करोड़ यहाँ वहा करने के आरोप है..यानिकी २० प्रतिशत पैसा जेब में चला गया॥ सरकार पर आरोप है की कई सारे काम बिना अनुमति के बाते गए और कई पुरे ही नहीं हुए। इस मुद्दे को लेकर चुनाव से ठीक पहले जहा कांग्रेस सरकार को घेर रही है वही पीAसी ने भी मामले कि जांच शुरू कर दी है...

Friday, June 18, 2010

देहरादून अब नाम का बच गया

देहरादून। हां, हां देहरादून शिवालिक रेंज से लगा तराई का यह शहर शदियों से ताज़ी हवा और ठन्डे पानी कि चाहत रखने वालो को लुभाता रहा है। लेकिन अब देहरादून किसी को लुभा नहीं रहा बस डरा रहा है, ७० के दशक से शुरू हुए उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के बाद उत्तराँचल नाम से ९ नवम्बर २००० को नए राज्य का गठन हुआ। नेताओ और अधिकारियो को पहाड़ में नहीं जाना था इसलिए छल से देहरादून को अस्थाई राजधानी घोषित करा दिया, वे जानते थे कि लोग बाद में राजधानी बदल जाने का भरोसा रखेंगे और हल्ला नहीं काटेंगे, हुआ भी यही उत्तराखंड कि सारी आन्दोलनकारी ताकते यह सोच कर चुप रही कि बाद में पहाढ़ में स्थायी राजधानी बनाई जाएगी, लेकिन एसा न तो होना था और ना हुआ, अब दस साल बाद देहरादून सी सूरत इतनी ख़राब हो चुकी है जितनी पहले कभी नहीं हुई। आज भी लोग देहरादून को शांति और सुकून के शहर के रूप में जानते है न कि उत्तराखंड कि राजधानी के रूप में. लेकिन आपको बता दू अब देहरादून सुकून का शहर नहीं उत्तराखंड कि राजधानी है, राज्य बनने के बाद लाखो लोग बहार और अन्दर से यहाँ आ चुके है। निगम कि ज्यादातर भूमि पर अवैद कब्ज़ा हो चूका है, हर और लालबत्ती लगी गाड़िया दोड़ रही है, जहा पहले गलियों में लोग सुकून से टहलते थे अब वह वहां दनदनाते है, अपराध इतने बाद चुके अकेले देहरादून में एक साल में ३००० से ज्यादा वहां चोरी हो गए, सरकार और कालोनी बनाने वालो ने विकास के नाम पर दस साल में २०००० हजार पढ़ काट डाले है। शहर का प्रदुसान बढ़ता जा रहा है, त्रेफ्फिक सिस्टम चरमराया हुआ है, आम और लीची के बगीचे कब के काट डाले गए, अब तो जहा देखो लोग है घर है, धुवा है वहां है लेकिन वो सुहूँ वाली बात नहीं है, पहले देहरादून को दो बार सोने वालो का शहर कहा जाता था मतलव आर्मी के रीतायारद लोग आदत के कारन सुबह ४.०० बजे उठते घुमने जाते फिर लौटकर सो जाते, लेकिन अब आप सुकून से एक बार भी नहीं सो सकते मतलव देहरादून बदल गया है।

Tuesday, April 6, 2010

खेल खेल में बन गई मिसाल


पहाढ़ में एक प्रचलित शब्द है ग्वाल्या खेल। ग्वाल्या खेल मतलव ग्वालो का खेल। पहाढ़ में ग्वालो का ऐसा कोई खेल नहीं है जिसे इस तरह से पहचाना जाये लेकिन यह शब्द फिर भी खेल पर भारी है। असल में यह शब्द टाइमपास करने से जुड़ा हुआ है। पहाढ़ में जिस काम को लोग बेकार समझते है उसे ग्वाल्या खेल कहा जाता है। लेकिन जब यह ग्वाल्या खेल किसी अविष्कार का कारण बन जाये तो क्या कहेंगे ग्वाला जाते जाते और ग्वाल्या खेल खेलते ही अल्मोढ़े के गिरीश भट्ट ने नायाब खोज की है। गिरीश ने पहाढ़ में सबसे बेकार समजी जाने वाली चीड की पत्तियो को उपयोगी बना दिया है।
क्या आप सोच सकते है की चीड की सुईनुमा पत्तिया जिन्हें पहाढ़ में बेकार समझा जाता है को सुंदर कलाकृतियों में ढाला जा सकता है। पहली बार में शायद यह बात बचकाना लगे लेकिन अल्मोड़ा के निकल बटगल गाँव (शित्लाखेत) के रहने वाले गिरीश भट्ट ने यह कर दिखाया है। ग्वाला जाकर चीड की पत्तियों के साथ खेलते खेलते उन्होंने कब इन पत्तियों को सुंदर आकर देना सुरु कर दिया, इसका कुढ़ उन्हें भी एहसास नहीं हुआ। धीरे धीरे उनकी कलाकृतिया आकार लेने लगी तो उनका जज्बा बढता गया हालाँकि न तो कोई प्रशिक्स्यक था लेकिन गिरीश को उम्मीद थी कि एक दिन उसकी मेहनत जरुर रंग लाएगी। अब कुछ सालो के कुहासे और इंतज़ार के बाद गिरीश कि शानदार कलाकृतिया लोगो को खूब पसंद आ रही है। गिरीश चीड कि पत्तियों से टोकरी, हैट, पेन स्टैंड, चप्पल, गिलास और पर्स जैसी कलाकृतिया बखूबी बना रहे है।
इसी साल जनवरी में आयोजित नेशनल हन्द्लुम अक्स्पो में राज्य स्तरीय हस्तशिल्प पुरस्कार (द्वितीय) से नवाजे गए गिरीश भट्ट यू तो सालो से शौकिया तौर पर पिरूलो (चीड की सुखी हुई पत्तिया) से कलाकृतिया तयार कर रहे थे लेकिन 2008 से उन्होंने व्याव्सीक रूप से इसकी शुरुआत कि है। गिरीश को २००८ में ही हस्तशिल्प श्रेणी के लिए जिला स्तरीय उद्यमिता पुरस्कार भी मिल चूका है। सुन्दर कलाकृतियो कि अपनी यात्रा के बारे में गिरीश बताते है, " मैंने इसकी शुरुआत कुछ साल पहले खेल खेल मई ही की थी। पहले पहले मई टोपी या टोकरी जैसी चीजे बनाने कि कोशिश करता था लेकिन उनके डिजाइन उतने अच्छे नहीं बनते थे। धीरे धीरे इसमें शुधर आता गया। अब मेरे डिजाइन लोगो को पसंद आने लगे है। " देहरादून के नेशनल हन्द्लूम एक्सपो से पहले गिरीश १४ से २७ नवम्बर २००९ में दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित भारत अंतररास्ट्रीय व्यापार मेले में भी अपनी स्टाल लगा चुके है । यह स्टाल उनकी पहली स्टाल थी लेकिन फिर भी वे २५ हजार का सामन बेचने में कामयाब रहे। अंतररास्ट्रीय मेले में स्टाल लगाकर गिरीश काफी उत्साहित है।
देहरादून में आयोजित नेशनल हन्द्लूम एक्सपो में गिरीश के डिजाइन को खूब सराहा गया। लेकिन यहाँ उनकी बिक्री कुछ कम रही। यहाँ वे पंद्रह दिनों तक चले एक्सपो में केवल १५ हजार का सामआन ही बीएच पाए। गिरीश का कहना है कि उनका सामान पहाढ़ के लोग नहीं खरीदते है। इस तरह का सामान विदेशियों औ शहर में रहने वाले लोगो को ही पसंद आता है। एसा नहीं है कि गिरीश कि बनायीं हुई चीजे बहुत महँगी है। उन्हें एक टोपी तयार करने में लगभग एक सप्ताह का समय लगता है, और इसकी कीमत साइज़ और क्वालिटी के हिसाब से ७०० से १५०० रुपीस तय कि जाती है। इस हिसाब से देखा जाय तो एक सप्ताह कि मेहनत से तयार किये गए किसी सिल्प कि कीमत इससे कम नहीं हो सकती। इसी तरह गिरीश के बनाये पेन स्टैंड कि कीमत १०० रुपीस, टोकरी कि कीमत ३००- ६०० रुपीस, चप्पल २५०-३००, ६ गिलासों कि कीमत ३००-६०० व पर्स की कीमत २५०० रुपीस राखी गयी है।
हन्द्लूम एक्सपो में गिरीश के साथ आये कैलाश चन्द्र भट्ट हस्तशिल्प और कला के प्रति गिरीश के समर्पण से काफी खुश है। साथ ही खुसी इस बात कि भी है कि अब गिरीश कि कला व्यावासिक रूप लेने लगी है। लेकिन खुसी के साथ कि उत्पादन के बाद कि स्थिथि को लेकर भी उनकी निराशा कम नहीं है। कैलाश चन्द्र भट्ट
कहते है, " गिरीश ने बेकार समजी जाने वाली पिरूल से चीजे बनाकर एक खोज कि है। लेकिन यह खोज तब तक कामयाब नहीं हो सकती जब तक तयार माल को बेचने के लिए बाजार नहीं मिलेगा।"
बाजार और वयपार से जुडी परेसानियो को लेकर कैलाश कहते है कि हम जो भी सामान तयार कर रहे है वह बाहर के लोगो के मतलव का है लेकिन हमारे पास बाहर कोई भी स्टाल नहीं है। इतना ही नहीं कैलाश कि शिकायत सरकार को लेकर भी है। उनका कहना है कि सरकार ने अब तक इस कला को प्रोत्साहित करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया है। इस कला के विकास कि गुजारिस लेकर कैलाश पहले भी सीएम् को पत्र लिख चुके है। उन्होंने मुख मंत्री को सुझाव दिया था कि अगर इस कला का विकास किया जाय तो यह रोजगार का जरिया बन सकती है।

Thursday, April 16, 2009

उत्तराखंड की खोज


प्रवीन कुमार भट्ट
यह बात आपको चौका सकती है की उत्तराखंड प्रान्त की कल्पना आज से कई सौ साल पहले सिख धर्म द्वारा की गई थी। एक पोथी (ग्रन्थ) मे लिखे गुरु नानक देव जी के उदगारों से यह बात सिद्ध हुई है। यह पोथी उत्तराखंड के कासीपुर नगर मे ननकाना साहिब गुरूद्वारे के मुख्य ज्ञानी मंजीत सिंह जी के पास है। मंजीत सिंह को यह पोथी आज से लगभग २५ साल पहले उनके नाना ज्ञानी श्री संत प्रेम सिंह जी ने पंजाब प्रान्त मे दी थी। इस पोथी मे श्री गुरु नानक देव का पूरा जीवन वृतांत लिखा गया है। यह पोथी संवत १५९७ इसवी मे ज्ञानी बाबा पैडामौखे द्वारा लिखित मूल ग्रन्थ का प्रकाशित रूप है। इस ग्रन्थ को बाबा ने गुरु अंगद देव जी महाराज और भाई बालाजी महाराज की मौजूदगी मे लिखा था। मूल ग्रन्थ का प्रकाशित रूप यह पोथी लगभग सौ-सवा सौ साल पुरानी है। इस पोथी के पृष्ठ संख्या ९७ मे वर्णन किया गया है कि जब गुरु नानक देव जी भाई लालो देव जी के सानिध्य से १५९७ मे वापस उत्तराखंड आए तो इसी दौरान उन्होंने अलग उत्तराखंड प्रान्त कि कल्पना की। दौरान गुरुनानक देव एक माह कश्मीर,बंगाल और १५ दिन विदेश भी गए। इस ग्रन्थ के अनुसार उत्तराखंड प्रान्त कि कल्पना १५९७ मे ही कर ली गई थी।
ननकाना साहिब गुरूद्वारे के ग्रंथी ज्ञानी श्री मंजीत सिंह जी बताते है कि सिख धर्म के प्रथम गुरु नानक देव जी आज से कई सौ वर्स पूर्व इस स्थान मे आए थे। उनके अनुसार गुरु नानक देव जी उत्तराखंड के अनेक स्थानों मे घूमने,ठहरने व विश्राम करने के साथ- साथ काशीपुर मे भी रुके थे। जिस स्थान पर नानक देव ने विश्राम किया था उसी स्थान पर वर्तमान में गुरुद्वारा बना है। मान्यता है कि जिस समय नानक देव काशीपुर मे विश्राम कर रहे थे उसी समय पास मे ही बह रही नदी विकराल रूप में बह रही थी। गुरुजी के शिष्यों ने उनक्से नदी के प्रवाह को कम करने का आग्रह किया जिसपर गुरुजी ने एक धेला नदी कि और फेका। इसके बाद नदी का विकराल रूप संत हो गया और नदी का रुख भी बदल गया। इसके बाद इस नदी का नाम धेला नदी हो गया। इस घटना का उल्लेख उत्तराखंड के इतिहासकारों ने भी किया है।
आज जबकि इस इस पोथी द्वारा यह बात सिद्ध होने पर कि इस राज्य की कल्पना १९५७ मे ही कर ली गई थी। जबकि राज्य के नाम और गठन को लेकर कुछ राजनीतिक डालो में घमासान आज भी जारी है।