tag:blogger.com,1999:blog-82861781034611879582024-03-05T13:35:03.352-08:00All about uttarakhand news, views and more.insideuttarakhand नाम के इस ब्लॉग में आपका स्वागत है, कोशिश होगी कि इसके जरिये आपको उत्तराखंड के बारे में बताया जाय।इस ब्लॉग के बारे में आप अपनी बेबाक ,बेलाग राय किसी भी माध्यम से कभी भी दे सकते है।
आपका मित्र
प्रवीन कुमार भट्ट
praveen.bhatt@rediff.com
देहरादून।Praveen kumar Bhatthttp://www.blogger.com/profile/15394964288363513598noreply@blogger.comBlogger11125tag:blogger.com,1999:blog-8286178103461187958.post-68023844734860096842011-06-08T19:34:00.000-07:002011-06-08T20:06:27.922-07:00बाबा रामदेव पहली बार बैकफुट पर दिख रहे हैपिछले १५ सालो से फ्रंत्फुत पर खेल रहे बाबा रामदेव पहली बार बैकफुट पर दिख रहे है। अपने लगभग हर योग शिविर में नेताओ को अपने अंदाज़ में कोसने वाले बाबा घिरा महसूस कर रहे है....केंद्र सरकार ने इनके सभी सत्ता प्रतिष्ठानों कि जांच के भी आदेश दे दिए है...पतंजलि योग पीठ कि जमीन की फर्जी रजिस्ट्री का मामला, योगग्राम के लिए २८ से अधिक चरवाहों के गावो कि जमीं हथियाने का मामला, हथियार लाइसेंस, पासपोर्ट, विश्वविद्यालय, देश विदेश में फैली २०० से अधिक कम्पनियो का मामला.....अब बाबा सोच रहे है कि पहले खुद को बचाऊ या देश को......Praveen kumar Bhatthttp://www.blogger.com/profile/15394964288363513598noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8286178103461187958.post-72925316952131855862011-05-30T04:01:00.000-07:002011-05-30T04:12:45.313-07:00कायदों का मजाक बनाती उत्तराखंड मित्र पुलिसवैसे तो यह हर जगह होता होगा लेकिन देहरादून में यह आम बात है। यहाँ यातायात को सुचारू करने कि जिम्मेदारी उठाने वाले ही उसकी धज्जिया उढ़ा रहे है । शहर में चले वाले विक्रमो में आगे एक ही सवारी बैठने का नियम है। एसा ना करने पर पुलिस वाले चालान करते है जो १०० से २५०० तक कितना भी हो सकता है। लेकिन एक बिडम्बना यह भी है कि जब पुलिस वालो को कही जाना होता है तब वे आगे बैठी सवारी को धक्का देकर उसमे ही दो बैठ जाते है। यहाँ कोई कायदा नहीं उल्टा पुलिस वाले किराया भी नहीं देते ...कोई हिम्मत करके मांगे तो नो नोट आगे चालन...यहाँ है पुलिस....उत्तराखंड मित्र पुलिसPraveen kumar Bhatthttp://www.blogger.com/profile/15394964288363513598noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8286178103461187958.post-61943360291101611752011-05-30T03:35:00.000-07:002011-05-30T03:59:30.065-07:00विक्रम वालो से हारी उत्तराखंड सरकारJNnurm जवाहर लाल नेहरु रास्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन को केंद्र सरकार की महत्वाकांसी योजना बताया जाता है। यह योजना केंद्र सरकार द्वारा देश के लगभग सभी शहरो में चलायी जा रही है। उत्तराखंड के देहरादून, हरिद्वार और नैनीताल शहरो को इस योजना के तहत चुना गया था। योजना का उध्येस्य इन शहरो में बुनियादी सुविधाहो के विस्तार के साथ ही परिवहन कि सुविधा भी ठीक करना था। इसीलिए देहरादून शहर के लिए योजना के तहत २०० लो फ़लूर बस केंद्र सरकार ने राज्य हो भेजी। कायदे से इन बसों को देहरादून शहर के अन्दर ही चलना था जिस्स्से कि लोगो को जाम से तो निजात मिलती ही उन्हें समय पर वहां भी उपलब्ध हो जाते लेकिन यहाँ देहरादून में चल रहे विक्रमवालो की लौबी इतनी मज़बूत है कि सरकार उनके आगे झुटने टेकते हुए यह बसे हरिद्वार, देहरादून और ऋषिकेश चला रही है। जहा पहले से ही दर्ज़नो बसे लगी है। हालाँकि हाल फिलहाल ये बसे घाटे में नहीं चल रही है लेकिन इससे देहरादून शहर कि जानता को जो फायदा मिलना था वह तो नहीं मिल पा रहा है ... इतना ही नहीं शहर कि जनता विक्रम वालो कि जो मनमानी झेल रही है उसका हिसाब कैसे लगेगा..Praveen kumar Bhatthttp://www.blogger.com/profile/15394964288363513598noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8286178103461187958.post-36488880560481133112011-05-30T02:56:00.000-07:002011-05-30T03:34:09.297-07:00कुम्भ के दौरान हुई गड़बड़िया बनी निशंक सरकार की फांस<span style="font-size:100%;"><span style="font-family: arial;"><span>कुम्भ </span>के दौरान हुई गड़बड़िया उत्तराखंड कि निशंक सरकार के गले </span></span><span>की</span><span style="font-size:100%;"><span style="font-family: arial;"> फांस </span></span>बन गयी है। कुम्भ ख़तम होते समय तो निशंक इसकी सफलता के लिए नोबेल पुरूस्कार मांग रहे थे, लेकिन जब से सीएजी ने <span>इस</span> <span>मामले</span> <span>में</span> <span>संगीन</span> <span>सवाल</span> <span>उठाये</span> <span>है</span>। <span>तबसे</span> <span>अब</span> निशंक <span>साहब</span> <span>की</span> <span>बोलती</span> <span>बंद </span><span>है</span>। <span>कुम्भ</span> <span>के</span> <span>समय</span> <span>तो</span> <span>उन्हें</span> <span>और</span> <span>उनकी</span> <span>गेंग</span> <span>को</span> <span>लग</span> <span>रहा</span> <span>था</span> <span>कि</span> <span>खेल</span> <span>ख़तम</span> <span>पैसा</span> <span>हज़म</span>, <span>लेकिन</span> <span>वास्तव</span> <span>में</span> <span>ऐसा</span> <span>नहीं</span> <span>हो</span> <span>पाया</span> <span>और</span> <span>पूरे</span> <span>कुम्भ</span> <span>के</span> <span>दौरान</span> <span>सीएजी</span> हरिद्वार सहित पुरे मेला छेत्र में नज़र गढ़ाए रही और कुम्भ ख़त्म होते ही उसने सरकार की पल खोल दी। पिछले दिनों विधान सभा के पटल पर राखी गयी इस रिपोर्ट के बाद प्रदेश में सियासत का रंग लाल हो गया है। चुनावी साल से ठीक पहले इस तरह के खुलासे ने भाजपा को परेशानी में दाल दिया है। भले ही भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व अभी निशंक पर ही भरोसा जता रहा हो लेकिन एक के बाद एक हो रहे घोटालो के खुलासो ने पार्टी को भी सोचने पर विवश कर दिया है। एक तो विकल्प हीनता और दूसरा पहले ही पार्टी एक बार नेतृत्व परिवर्तन कर चुकी है इसे में यह तो तय है अगले चुनाव (जनवरी या फ़रवरी २०१२) तक निशंक ही सीएम होंगे लेकिन पार्टी ने अब सामूहिक नेतृत्व की बाद कह दी है। इसे निशंक के पर कतरना न भी समझा जाए तो इतना तो कहा ही जा सकता है कि निशंक जी अब वो बात नहीं हो..कुम्भ में हुई गड़बड़ियो को इसलिए भी बड़ा माना जा रहा है कि यहाँ सरकार ने केवल १००० करोड़ खर्च किये और उस पर २०० करोड़ यहाँ वहा करने के आरोप है..यानिकी २० प्रतिशत पैसा जेब में चला गया॥ सरकार पर आरोप है की कई सारे काम बिना अनुमति के बाते गए और कई पुरे ही नहीं हुए। इस मुद्दे को लेकर चुनाव से ठीक पहले जहा कांग्रेस सरकार को घेर रही है वही पीAसी ने भी मामले कि जांच शुरू कर दी है...<span></span><span></span>Praveen kumar Bhatthttp://www.blogger.com/profile/15394964288363513598noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8286178103461187958.post-68018736618581080792010-06-18T04:30:00.000-07:002010-06-18T04:52:25.680-07:00देहरादून अब नाम का बच गयादेहरादून। हां, हां देहरादून शिवालिक रेंज से लगा तराई का यह शहर शदियों से ताज़ी हवा और ठन्डे पानी कि चाहत रखने वालो को लुभाता रहा है। लेकिन अब देहरादून किसी को लुभा नहीं रहा बस डरा रहा है, ७० के दशक से शुरू हुए उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के बाद उत्तराँचल नाम से ९ नवम्बर २००० को नए राज्य का गठन हुआ। नेताओ और अधिकारियो को पहाड़ में नहीं जाना था इसलिए छल से देहरादून को अस्थाई राजधानी घोषित करा दिया, वे जानते थे कि लोग बाद में राजधानी बदल जाने का भरोसा रखेंगे और हल्ला नहीं काटेंगे, हुआ भी यही उत्तराखंड कि सारी आन्दोलनकारी ताकते यह सोच कर चुप रही कि बाद में पहाढ़ में स्थायी राजधानी बनाई जाएगी, लेकिन एसा न तो होना था और ना हुआ, अब दस साल बाद देहरादून सी सूरत इतनी ख़राब हो चुकी है जितनी पहले कभी नहीं हुई। आज भी लोग देहरादून को शांति और सुकून के शहर के रूप में जानते है न कि उत्तराखंड कि राजधानी के रूप में. लेकिन आपको बता दू अब देहरादून सुकून का शहर नहीं उत्तराखंड कि राजधानी है, राज्य बनने के बाद लाखो लोग बहार और अन्दर से यहाँ आ चुके है। निगम कि ज्यादातर भूमि पर अवैद कब्ज़ा हो चूका है, हर और लालबत्ती लगी गाड़िया दोड़ रही है, जहा पहले गलियों में लोग सुकून से टहलते थे अब वह वहां दनदनाते है, अपराध इतने बाद चुके अकेले देहरादून में एक साल में ३००० से ज्यादा वहां चोरी हो गए, सरकार और कालोनी बनाने वालो ने विकास के नाम पर दस साल में २०००० हजार पढ़ काट डाले है। शहर का प्रदुसान बढ़ता जा रहा है, त्रेफ्फिक सिस्टम चरमराया हुआ है, आम और लीची के बगीचे कब के काट डाले गए, अब तो जहा देखो लोग है घर है, धुवा है वहां है लेकिन वो सुहूँ वाली बात नहीं है, पहले देहरादून को दो बार सोने वालो का शहर कहा जाता था मतलव आर्मी के रीतायारद लोग आदत के कारन सुबह ४.०० बजे उठते घुमने जाते फिर लौटकर सो जाते, लेकिन अब आप सुकून से एक बार भी नहीं सो सकते मतलव देहरादून बदल गया है।Praveen kumar Bhatthttp://www.blogger.com/profile/15394964288363513598noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8286178103461187958.post-32781630656495464592010-04-06T22:12:00.000-07:002010-04-17T06:47:39.387-07:00खेल खेल में बन गई मिसाल<a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgRM7T-RSCvxg2LmL7crCi2s9Su4BHnrv7CmzkSbFQA95nRbXu0buqgggxh3yr8JGkuPzhwq38uSrrBmQVT-oDGUCiJ8p-7k9kGj9rucm9SqmY33x7lMM6BKoIGf6R-mDjvOX_M-0rjfas/s1600/girish+bhatt+passport+copy.jpg"><img style="float: right; margin: 0pt 0pt 10px 10px; cursor: pointer; width: 218px; height: 320px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgRM7T-RSCvxg2LmL7crCi2s9Su4BHnrv7CmzkSbFQA95nRbXu0buqgggxh3yr8JGkuPzhwq38uSrrBmQVT-oDGUCiJ8p-7k9kGj9rucm9SqmY33x7lMM6BKoIGf6R-mDjvOX_M-0rjfas/s320/girish+bhatt+passport+copy.jpg" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5457272292183058866" border="0" /></a><br />पहाढ़ में एक प्रचलित शब्द <span>है </span> ग्वाल्या खेल। ग्वाल्या खेल मतलव ग्वालो का खेल। पहाढ़ में ग्वालो का ऐसा कोई खेल नहीं है जिसे इस तरह से पहचाना जाये लेकिन यह शब्द फिर भी खेल पर भारी है। असल में यह शब्द टाइम<span>पास </span>करने से जुड़ा हुआ है। पहाढ़ में जिस काम को लोग बेकार समझते है उसे ग्वाल्या खेल कहा जाता है। लेकिन जब <span>यह </span>ग्वाल्या खेल किसी अविष्कार का कारण बन जाये तो क्या कहेंगे ग्वाला <span><span>जाते</span></span> जाते और ग्वाल्या खेल खेलते ही अल्मोढ़े के गिरीश भट्ट ने नायाब खोज की है। गिरीश ने पहाढ़ में सबसे बेकार समजी जाने वाली चीड की पत्तियो को उपयोगी बना दिया है।<br />क्या आप सोच सकते है की चीड की सुईनुमा पत्तिया जिन्हें पहाढ़ में बेकार समझा जाता है को सुंदर कलाकृतियों में ढाला जा सकता है। पहली बार में शायद यह बात बचकाना लगे लेकिन अल्मोड़ा के निकल बट<span>गल </span>गाँव (शित्लाखेत) के रहने वाले गिरीश भट्ट ने यह कर दिखाया है। ग्वाला जाकर चीड की पत्तियों के साथ खेलते खेलते उन्होंने कब इन पत्तियों को सुंदर आकर देना सुरु कर दिया, इसका कुढ़ उन्हें भी एहसास नहीं हुआ। धीरे धीरे उनकी कलाकृतिया आकार लेने लगी तो उनका जज्बा बढता गया हालाँकि न तो कोई प्रशिक्स्यक था लेकिन गिरीश को उम्मीद थी कि एक दिन उसकी <span>मेहनत </span><span>जरुर </span>रंग लाएगी। अब कुछ सालो के कुहासे और इंतज़ार के बाद गिरीश कि शानदार कलाकृतिया लोगो को खूब पसंद आ रही है। गिरीश चीड कि पत्तियों से टोकरी, हैट, पेन स्टैंड, चप्पल, गिलास और पर्स जैसी कलाकृतिया बखूबी बना रहे है।<br />इसी साल जनवरी में आयोजित नेशनल हन्द्लुम अक्स्पो में राज्य स्तरीय हस्तशिल्प पुरस्कार (द्वितीय) से नवाजे गए गिरीश भट्ट यू तो सालो से शौकिया तौर पर पिरूलो (चीड की सुखी हुई पत्तिया) से कलाकृतिया तयार कर रहे थे लेकिन 2008 से उन्होंने व्याव्सीक रूप से इसकी शुरुआत कि है। गिरीश को २००८ में ही हस्तशिल्प श्रेणी के लिए जिला स्तरीय उद्यमिता पुरस्कार भी मिल चूका है। सुन्दर कलाकृतियो कि अपनी यात्रा के बारे में गिरीश बताते है, " मैंने इसकी शुरुआत कुछ साल पहले खेल खेल मई <span>ही </span>की थी। पहले पहले मई टोपी या टोकरी जैसी चीजे बनाने कि कोशिश करता था लेकिन उनके डिजाइन उतने अच्छे नहीं बनते थे। धीरे धीरे इसमें शुधर आता गया। अब मेरे <span>डिजाइन </span><span>लोगो</span> <span>को</span> <span>पसंद</span> <span>आने</span> <span>लगे</span> <span>है</span>। " देहरादून के नेशनल हन्द्लूम एक्सपो से पहले गिरीश १४ से २७ नवम्बर २००९ में दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित भारत अंतररास्ट्रीय व्यापार मेले में भी अपनी स्टाल लगा चुके है । यह स्टाल उनकी पहली स्टाल थी लेकिन फिर भी वे २५ हजार का सामन बेचने में कामयाब रहे। अंतररास्ट्रीय मेले में स्टाल लगाकर गिरीश काफी उत्साहित है।<br />देहरादून में आयोजित नेशनल हन्द्लूम एक्सपो में गिरीश के <span>डिजाइन </span><span>को खूब सराहा गया। लेकिन यहाँ उनकी बिक्री कुछ कम रही। यहाँ वे पंद्रह दिनों तक चले एक्सपो में केवल १५ हजार का सामआन ही बीएच पाए। गिरीश का कहना है कि उनका सामान पहाढ़ के लोग नहीं खरीदते है। इस तरह का सामान विदेशियों औ</span><span><span><span>र</span></span> शहर में रहने वाले लोगो को ही पसंद आता है। एसा नहीं है कि गिरीश कि बनायीं हुई चीजे बहुत महँगी है। उन्हें एक टोपी तयार करने में लगभग एक सप्ताह का समय लगता है, और इसकी कीमत साइज़ और क्वालिटी के हिसाब से ७०० से १५०० रुपीस तय कि जाती है। इस हिसाब से देखा जाय तो एक सप्ताह कि मेहनत से तयार किये गए किसी सिल्प कि कीमत इससे कम नहीं हो सकती। इसी तरह गिरीश के बनाये पेन स्टैंड कि कीमत १०० रुपीस, टोकरी कि कीमत ३००- ६०० रुपीस, चप्पल २५०-३००, ६ गिलासों कि कीमत ३००-६०० व पर्स की कीमत २५०० रुपीस राखी गयी है।<br />हन्द्लूम एक्सपो में गिरीश के साथ आये कैलाश चन्द्र भट्ट हस्तशिल्प और कला के प्रति गिरीश के समर्पण से काफी खुश है। साथ ही खुसी इस बात कि भी है कि अब गिरीश कि कला व्यावासिक रूप लेने लगी है। लेकिन खुसी के साथ कि उत्पादन के बाद कि स्थिथि को लेकर भी उनकी निराशा कम नहीं है। कैलाश चन्द्र भट्ट</span><span><span><span></span></span> कहते है, " गिरीश ने बेकार समजी जाने वाली पिरूल से चीजे बनाकर एक खोज कि है। लेकिन यह खोज तब तक कामयाब नहीं हो सकती जब तक तयार माल को बेचने के लिए बाजार नहीं मिलेगा।"</span><a onblur="try {parent.deselectBloggerImageGracefully();} catch(e) {}" href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhT_3a-EnaNNAodDfA1ILC7c9G8sIAgrN2HQCP8RnT8E3nS-GJ0nWRMIBCFPIdFE4FPeJH3a6wCluZDt3BrpRNBluWsX9oDYstxGp3Jtu1U_SoidWzWDKWn24n2bRzpO1UHXiXNQrMjcrY/s1600/girish+bhatt+2.jpg"><img style="float: right; margin: 0pt 0pt 10px 10px; cursor: pointer; width: 320px; height: 214px;" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhT_3a-EnaNNAodDfA1ILC7c9G8sIAgrN2HQCP8RnT8E3nS-GJ0nWRMIBCFPIdFE4FPeJH3a6wCluZDt3BrpRNBluWsX9oDYstxGp3Jtu1U_SoidWzWDKWn24n2bRzpO1UHXiXNQrMjcrY/s320/girish+bhatt+2.jpg" alt="" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5461102503622090194" border="0" /></a><br /><span>बाजार और वयपार से जुडी परेसानियो को लेकर कैलाश कहते है कि हम जो भी सामान तयार कर रहे है वह बाहर के लोगो के मतलव का है लेकिन हमारे पास बाहर कोई भी स्टाल नहीं है। इतना ही न</span><span><span><span>हीं</span></span> कैलाश कि शिकायत सरकार को लेकर भी है। उनका कहना है कि सरकार ने अब तक इस कला को प्रोत्साहित करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया है। इस कला के विकास कि गुजारिस लेकर कैलाश पहले भी सीएम् को पत्र लिख चुके है।</span><span> उन्हों</span><span><span><span>ने</span></span> मुख मंत्री को सुझाव दिया था कि अगर इस कला का विकास किया जाय तो यह रोजगार का जरिया बन सकती है।<br /></span>Praveen kumar Bhatthttp://www.blogger.com/profile/15394964288363513598noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8286178103461187958.post-48264481108378393782009-04-16T01:53:00.000-07:002009-04-16T01:56:21.265-07:00उत्तराखंड की खोज<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjAY6XZmcFy1t1eWBvvvDJymz14NX3njIfIcKb16Aq4OXrMPOy0vIYFPXKt_Z97rXXUUS8ECpCzZaFIAWFZro1WcQYcIdstb5GDYmQk3W1JdxRP5ce-XnFNuk19c8Syhe3PLYQa8wkAqic/s1600-h/kashipur"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5325210397823876594" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 240px; CURSOR: hand; HEIGHT: 320px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjAY6XZmcFy1t1eWBvvvDJymz14NX3njIfIcKb16Aq4OXrMPOy0vIYFPXKt_Z97rXXUUS8ECpCzZaFIAWFZro1WcQYcIdstb5GDYmQk3W1JdxRP5ce-XnFNuk19c8Syhe3PLYQa8wkAqic/s320/kashipur" border="0" /></a><br /><div><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEheTxwMemaGI8dffCy-lZdgqH3jCJEEX0abCCZCWYQHRLf7ou4ejUEsS6QdabeFIGJ0vaSxuGkyBNdmO5O1d77wsXvtOG4dVP50HOR8SmnR5JRA2Hhv7kgFr0_ggVI84p1OYxxd4USwzTw/s1600-h/kashipur+03.JPG"></a><span class="">प्रवीन </span>कुमार भट्ट<br />यह बात आपको चौका सकती है की उत्तराखंड प्रान्त की कल्पना आज से कई सौ साल पहले सिख धर्म द्वारा की गई थी। एक पोथी (ग्रन्थ) मे लिखे गुरु नानक देव जी के उदगारों से यह बात सिद्ध हुई है। यह पोथी उत्तराखंड के कासीपुर नगर मे ननकाना साहिब गुरूद्वारे के मुख्य ज्ञानी मंजीत सिंह जी के पास है। मंजीत सिंह को यह पोथी आज से लगभग २५ साल पहले उनके नाना ज्ञानी श्री संत प्रेम सिंह जी ने पंजाब प्रान्त मे दी थी। इस पोथी मे श्री गुरु नानक देव का पूरा जीवन वृतांत लिखा गया है। यह पोथी संवत १५९७ इसवी मे ज्ञानी बाबा पैडामौखे द्वारा लिखित मूल ग्रन्थ का प्रकाशित रूप है। इस ग्रन्थ को बाबा ने गुरु अंगद देव जी महाराज और भाई बालाजी महाराज की मौजूदगी मे लिखा था। मूल ग्रन्थ का प्रकाशित रूप यह पोथी लगभग सौ-सवा सौ साल पुरानी है। इस पोथी के पृष्ठ संख्या ९७ मे वर्णन किया गया है कि जब गुरु नानक देव जी भाई लालो देव जी के सानिध्य से १५९७ मे वापस उत्तराखंड आए तो इसी दौरान उन्होंने अलग उत्तराखंड प्रान्त कि कल्पना की। दौरान गुरुनानक देव एक माह कश्मीर,बंगाल और १५ दिन विदेश भी गए। इस ग्रन्थ के अनुसार उत्तराखंड प्रान्त कि कल्पना १५९७ मे ही कर ली गई थी।<br />ननकाना साहिब गुरूद्वारे के ग्रंथी ज्ञानी श्री मंजीत सिंह जी बताते है कि सिख धर्म के प्रथम गुरु नानक देव जी आज से कई सौ वर्स पूर्व इस स्थान मे आए थे। उनके अनुसार गुरु नानक देव जी उत्तराखंड के अनेक स्थानों मे घूमने,ठहरने व विश्राम करने के साथ- साथ काशीपुर मे भी रुके थे। जिस स्थान पर नानक देव ने विश्राम किया था उसी स्थान पर वर्तमान में गुरुद्वारा बना है। मान्यता है कि जिस समय नानक देव काशीपुर मे विश्राम कर रहे थे उसी समय पास मे ही बह रही नदी विकराल रूप में बह रही थी। गुरुजी के शिष्यों ने उनक्से नदी के प्रवाह को कम करने का आग्रह किया जिसपर गुरुजी ने एक धेला नदी कि और फेका। इसके बाद नदी का विकराल रूप संत हो गया और नदी का रुख भी बदल गया। इसके बाद इस नदी का नाम धेला नदी हो गया। इस घटना का उल्लेख उत्तराखंड के इतिहासकारों ने भी किया है।<br />आज जबकि इस इस पोथी द्वारा यह बात सिद्ध होने पर कि इस राज्य की कल्पना १९५७ मे ही कर ली गई थी। जबकि राज्य के नाम और गठन को लेकर कुछ राजनीतिक डालो में घमासान आज भी जारी है। </div>Praveen kumar Bhatthttp://www.blogger.com/profile/15394964288363513598noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8286178103461187958.post-51359550546188893442009-04-16T01:52:00.000-07:002009-04-16T05:56:45.763-07:00भिटौली के बारे मेप्रवीन कुमार भट्ट<br /><div><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjCtqVctsMyeuw6wIa1tklN2DEzP1CpI2XsTnNt-ll69inBmy-A0Y0p6RqRByrNXWvGoni1poRZpag7ZTAAB9QzE5p2zmeqvk2xqK6yCT28wvRwbgI5jQVYXCn_KzBQkaLGx46jzURWFYg/s1600-h/womens.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5325268518535552978" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 320px; CURSOR: hand; HEIGHT: 196px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjCtqVctsMyeuw6wIa1tklN2DEzP1CpI2XsTnNt-ll69inBmy-A0Y0p6RqRByrNXWvGoni1poRZpag7ZTAAB9QzE5p2zmeqvk2xqK6yCT28wvRwbgI5jQVYXCn_KzBQkaLGx46jzURWFYg/s320/womens.jpg" border="0" /></a> मान्यताओ और परम्पराओ का प्रदेश है उत्तराखंड। पहाड़ी प्रदेश में हर कदम पर बोली और दस कदम में भाषा बदल जाती है। लेकिन फिर भी कुछ परम्पराए,तीज-त्यौहार ऐसे है, जो न केवल ख़ुद को बचाए हुए है बल्कि समाज को एक सूत्र में बांधे रखने का भी काम कर रहे है। इन्ही परम्पराओं में से एक परम्परा है भिटौली। यहाँ हर साल चैतके महीने में पिता व भाई द्वारा बहिन व बेटी को भिटौली दिए जाने की परम्परा सैकडो सालो से चली आ रही है। और आज भी गावो में महिलाए चैत के महीने का बेसब्री से इंतजार करती है। उत्तराखंड में अतीत से लेकर आज तक भिटौली दिए जाने की प्रथा किसी न किसी रूप में चली आ रही है। अधिकांश पहाढ़ वासी आज भी अपनी बेटी या भाई अपनी बहिन के घर जाकर या मनीऔदर द्वारा भिटौली भेजते है। भिटौली देने का यह सिलसिला चैत के महीने भर चलता रहता है, लेकिन कई मौको पर यह बैशाख और जेठ के महीने तक भी चलता है। पर्वतीय प्रदेश दूर दराज गावो में लोग कपड़े, मिठाई, फल व विभिन्न पकवान बनाकर भिटौली डीहै। भिटौली शब्द भैटसे ही बना है। साल भर में इस महीने माँ-बाप, भाई अपनी बेटी -बहिन से अवश्य भैट करता है। कुमाऊ हो या गढ़वाल प्रारम्भ में पूरे उत्तराखंड की स्थिती ही काफी दयनीय रही है। बुजुर्गो का कहना है किएक समय ऐसा भी हा जब यहाँ के लोगो को पेट भरने के लिए भी मशक्कत करनी पड़ती थी। हालात यह थे कि लोगो को भुना हुआ खाना साल में ख़ास त्योहारों पर ही मिल पता था। साल में एक दिन अपनी लड़की की खुसी के लिए मनाया जाने वाला यह त्यौहार धीरे-धीरे भिटौली के रूप में प्रसिध हो गया। बसंत ऋतू के उदासी वाले दिनों के बाद हिमालय की गोद में बसे इस प्रदेश में यह सौगातमय त्यौहार विशेष श्रद्धा के साथ मनाया जाता है। इन दिनों जहा एक ओर पहाडो की हसीं वाडिया हरियाली की चादर ताने रहती है वही देशी विदेशी परिंदे भी इस त्यौहार का स्वागत करते है । पर्वतीय भावनाओ के संगम वाले इस पर्व पर भाई अपनी बहिन और पिता अपनी पुत्री के लिए प्रेम का जो उपहार ले जाता है , वह पर्वतीय सौगात की अनुपम भैट बन जाती है, एक इसी भैट जिसमे सदियों की परम्परा समाई रहती है । लेकिन अफ़सोस की बात यह है आधुनिकता की चकाचौध और भौतिकवाद के नशे में यह त्यौहार धीरे-धीरे दम तोड़ता जा रहा है। अपनी संस्कृति और परम्परा से बिमुख लोग फैशन व धनालोभ के चलते इस पवित्र मर्यादित त्यौहार को महत्व नही दे रहे है जो पर्वतीय संस्कृति ओर परम्परा के लिए गहन चिंतन का विषय है। खास टूर पर पहाडो से पलायन कर चुके लोग <span class="">तो<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiWM0CVXTV7gYIbNCkHbKE5AsJhJvZ_Q-I4Bjn_IkXH0matFh1db4rA9s3yvaGnXL2cg4ZRt-k2bjLazlbagCtO6qMx4sdp0euryeDsHiXHxeFVZLUV3JUbFxcznX_flBDELclFtw8pZkQ/s1600-h/aama.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5325269632766381938" style="FLOAT: right; MARGIN: 0px 0px 10px 10px; WIDTH: 147px; CURSOR: hand; HEIGHT: 188px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiWM0CVXTV7gYIbNCkHbKE5AsJhJvZ_Q-I4Bjn_IkXH0matFh1db4rA9s3yvaGnXL2cg4ZRt-k2bjLazlbagCtO6qMx4sdp0euryeDsHiXHxeFVZLUV3JUbFxcznX_flBDELclFtw8pZkQ/s200/aama.jpg" border="0" /></a></span> इस परम्परा को भूल चुके हैफिर भी सुदूर छेत्रो में यह त्यौहार आज भी उतना ही महत्व रखता है। कहना यह है कि अपनी बेटी व बहिन के लिए चेत के महीने में वगर हम एक दिन का समय नही निकाल पते तो निश्चित ही इस परम्परा का अस्तित्व खतरे में पढ़ जाएगा।</div>Praveen kumar Bhatthttp://www.blogger.com/profile/15394964288363513598noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8286178103461187958.post-19333533817739356812009-04-16T01:48:00.000-07:002009-04-16T01:49:55.310-07:00उत्तराखंड आन्दोलन का अमर सपूत निर्मल पंडितप्रवीन कुमार भट्ट<br />अलग उत्तराखंड राज्य के लिए पाँच दशक तक चले संघर्ष के यू तो हजारो सिपाही रहे है, जो समय- समय पर किसी न किसी रूप में अलग राज्य के लिए अपनी आवाज बुलंद करते रहे। लेकिन इनमे से कुछ नाम ऐसे है जिनके बिना इस लडाई की कहाणी कह पाना संभव नही है।निर्मल कुमार जोशी 'पंडित' एक ऐसा ही नाम है। निर्मल का जन्म सीमांत जनपद पिथोरागढ़ की गंगोलीहाट तहसील के पोखरी गाव में श्री इश्वरी दत्त जोशी व श्रीमती प्रेमा देवी के घर १९७० में हुआ था। जैसा कि कहा जाता है पूत के पाव पालने में ही दिख जाते है, वैसा ही कुछ निर्मल के साथ भी था। उन्होंने छुटपन से ही जनान्दोलनों में भागीदारी शुरू कर दी थी। १९९४ में राज्य आन्दोलन में कूदने से पहले निर्मल शराब माफिया व भू माफिया के खिलाफ निरंतर संघर्ष कर रहे थे। लेकिन १९९४ में वे राज्य आन्दोलन के लिए सर पर कफ़न बांधकर निकल पड़े। राज्य आन्दोलन के दौरान निर्मल के सर पर बंधे लाल कपड़े को लोग कफ़न ही कहा करते थे। आंदोलनों में पले बड़े निर्मल ने १९९१-९२ में पहली बार पिथोरागढ़ महाविद्यालय में महासचिव का चुमाव लड़ा और विजयी हुए। इसके बाद निर्मल ने पीछे मूड कर नही देखा और लगातार तीन बार इसी पद पर जीत दर्ज की। तीन बार लगातार महासचिव चुने जाने वाले निर्मल संभवतः अकेले छात्र नेता है। छात्र हितों के प्रति उनके समर्पण का यही सबसे बड़ा सबूत है। इसके बाद वे पिथोरागढ़ महाविद्यालय के अध्यक्स भी चुने गए। निर्मल ने १९९३ में नशामुक्ति के समर्थन में पिथोरागढ़ में एक एतिहासिक सम्मलेन करवाया था, यह सम्मलेन इतना सफल रहा था कि आज भी नशा मुक्ति आन्दोलन को आगे बड़ा रहे लोग इस सम्मलन कि नजीरेदेते है। १९९४ में निर्मल को मिले जनसमर्थन को देखकर शासन सत्ता भी सन्न रह गई थी, इस दुबली पतली साधारण काया से ढके असाधारण व्यक्तित्व के आह्वान पर पिथोरागढ़ ही नही पुरे राज्य के युवा आन्दोलन में कूद पड़े थे। पिथोरागढ़ में निर्मल पंडित का इतना प्रभाव था कि प्रशासनिक अधिकारी भी उनके सामने आने से कतराते थे। जनमुद्दों कि उपेक्षा करने वाले अधिकारी सार्वजनिक रूप से पंडित का कोपभाजन बनते थे। राज्य आन्दोलन के दौरान उत्तराखंड के अन्य भागो कि तरह ही पिथोरागढ़ में भी एक सामानांतर सरकार का गठन किया गया था, जिसका नेतृत्व निर्मल ही कर रहे थे। कफ़न के रंग का वस्त्र पहने पंडित पुरे जिले में घूम घूम कर युवाओ में जोश भर रहे थे। राज्य आन्दोलन के प्रति निर्मल के संघर्ष से प्रभावित होकर केवल नौजवान ही नही बल्कि हजारो बुजुर्ग और महिलाए भी आन्दोलन में कुढ़ पड़ी, यहाँ तक कि रामलीला मंचो में जाकर भी वे लोगो को राज्य और आन्दोलन कि जरुरत समझाते थे। पिथोरागढ़ के थल, मुवानी, गंगोलीहाट, बेरीनाग, मुनस्यारी, मदकोट, कनालीछीना, धारचुला जैसे इलाके जो अक्सर जनान्दोलनों से अनजान रहते थे, राज्य आन्दोलन के दौरान यहाँ भी धरना प्रदर्शन और मशाल जुलूस निकलने लगे। इस विशाल होते आन्दोलन से घबराई सरकार ने निर्मल को गिरफ्तार कर फतेहपुर जेल भेज दिया। राज्य प्राप्ति के लिए चल रहा तीव्र आन्दोलन तो धीरे-धीरे ठंडा हो गया लेकिन जनता के लिए लड़ने की निर्मल कि आरजू कम नही हुई। इसी दौरान हुए जिला पंचायत चुनावों में निर्मल भी जिला पंचायत सदस्य चुने गए, राज्य आन्दोलन के लिए चल रहा जुझारू संघर्ष भले ही थोड़ा कम हो गया था लेकिन खनन और शराब माफिया के खिलाफ उनका संघर्ष निरंतर जारी था। २७ मार्च १९९८ को शराब की दुकानों के ख़िलाफ़ अपने पूर्व घोषित कार्यक्रम के अनुसार उन्होंने पिथोरागढ़ जिलाधिकारी कार्यालय के सामने आत्मदाह किया। बुरी तरह झुलसने पर कुछ दिनों पिथोरागढ़ में इलाज के बाद उन्हें दिल्ली ले जाया गया। लगभग दो महीने जिंदगी की ज़ंग लड़ने के बाद आख़िर निर्मल को हारना पड़ा, १६ माय १९९८ को उत्तराखंड का यह वीर सपूत हमारे बीच से विदा हो गया। निर्मल कि शहादत के बाद हालाँकि यह सवाल अभी जिन्दा है कि क्या उसे बचाया जाती सकता था। सवाल इसलिए भी कि क्योकि यह आत्मदाह पूर्व घोषित था। निर्भीकता और जुझारूपन निर्मल पंडित के बुनियादी तत्व थे, उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन माफिया के ख़िलाफ़ समर्पित कर दिया, वे कभी जुकने को राजी नही हुए, यही जुझारूपन अंत में उनकी शहीदी का भी कारण बना। अब जबकि ९ नवम्बर २००० को अलग राज्य उत्तराखंड का गठन भी हो चुका है। जिस राज्य के गठन का सपना लेकर निर्मल शहीद हो गए वही राज्य अब माफिया के लिए स्वर्ग साबित हो रहा है। शराब और खननं माफिया तो पहले से ही पहाढ़ को लूट रहे थे अब जमीन माफिया नाम का नया अवतार राज्य को खोखला कर रहा है। इसे में भला निर्मल की याद नही आएगी तो कौन याद आएगा। निर्मल का जीवन उत्तराखंड के युवाओं के लिए हमेशा ही प्रेरणा स्रोत रहेगा।Praveen kumar Bhatthttp://www.blogger.com/profile/15394964288363513598noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8286178103461187958.post-78543318837233747932009-04-15T23:13:00.000-07:002009-04-16T01:43:54.633-07:00पीछे छूट गई बाखली<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgBs1HUzlQNrD9Acr8_cyLY14zwzCEKc0pT2krVZ2ckm4ryBbbVkFlPRXETuffqn1Q-D3AmMtumBZZhstUaKuWD_ZLy_GMlwNgqbvuZkJe9SHq-XfSHy_IULaMTGl2acOqUVoewsyfQeh4/s1600-h/bak.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5325206431196390706" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 320px; CURSOR: hand; HEIGHT: 180px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgBs1HUzlQNrD9Acr8_cyLY14zwzCEKc0pT2krVZ2ckm4ryBbbVkFlPRXETuffqn1Q-D3AmMtumBZZhstUaKuWD_ZLy_GMlwNgqbvuZkJe9SHq-XfSHy_IULaMTGl2acOqUVoewsyfQeh4/s320/bak.jpg" border="0" /></a><br /><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjSFOs68n9pv1F3hFbTpGHRWuwQA1hVCIDlgmggOXylBMOyfnHDbLFnc6RO6Ovjvj-F-TtNceJfa8_yUfORyymwa8S8gKwDF_a_gtqgEOYPFiqo1l-fTl0KB4qXeN_Sx_kyqws0oIZB728/s1600-h/bak.jpg"></a><br /><div><br /><span class="">प्रवीन </span><span class="">कुमार </span>भट्ट </div><br /><div>बाखली का सरोकार पहाड़ से है जहा बसते है पहाडी। पहाड़ में बसने का ही जरिया है बाखली। बाखली जहा रहते है लोग जहा बसता है ग्राम समाज। बहुत से लोग जो बाखली से परिचित नही होंगे उनके लिए तो यह महज एक शब्द है लेकिन जो बाखली में रहते है उनके लिए यह एक छोटा सा देश होता है, अपनी सरकार, अपना शासन, काका-काकी, दादा-भौजी, इजा-बोजू और भी गाँवके कई रिश्ते नाते जिनसे कसकर बंधी होती है बाखली। बाखली का मतलब सिर्फ़ घर या पड़ोस नही होता, बाखली पहाड़ मे ग्राम समाज कि सबसे छोटी इकाई होती है, यहाँ पंचायतो कि तरह चुनाव तो नही होते लेकिन यहाँ एक घोषित अनुशासन जरुर होता है। सच कहे तो बाखली और कुछ नही बस पहाड़ के ढलवा छतो वाले मकानों का एक सिलसिला होती है। दूर से देखने पर बाखली किसी सौकार का घर मालूम होती है, लेकिन असल में घरो के इस सिलसिले मे बिरादरों के कई परिवार रहते है। एक घर से मिलाकर दूसरा घर इस तरह से बनाया जाता है कि तीन दिवार लगाई और दूसरा घर तैयार, आम तौर पर बाखली तब बसती ही चली जाती है जब एक भाई से दूसरा भाई और पिता से बेटे अलग घर बसाते है। बाखली भले ही एक भाई के दुसरे से या बेटो के पिता से अलग होने पर फलती फूलती हो लेकिन इससे इसका महत्व कम नही होता, क्योकि बाखली मे रहने वाले नाती नातिन तो आमा बुबू कि गोद मे ही खेलते है, इस आगन से उस आगन खेलते खेलते बच्चे कब जवान हो जाते है किसी हो पता भी नही चलता, जाडो के दिनों मे आगन मे बंधे जानवर पुवाल बिछाकर बैठे आमा बुबू ये सिर्फ़ बाखली मे ही होता है, कही आगन के किनारे पर बहु नाती को नहला रही है, तो कही बर्तन माजने कि आवाज। बाखली कि जिंदगी कुछ एसी है कि एक घर में छाछ बनी तो सबके गले से रोटी उतर जायेगी। इसी तरह से नौले धारे का ठंडा पानी एक घर में आया तो सबको मिलेगा। अगर एक घर कि गाय दूध देना बंद कर दे तो कई घरो से दूध आना सुरु हो जाता है और यह सिलसिला तब तक जारी रहता है जब तक गाय न ब्याह जाए। इसी तरह सुख दुःख बाटते हुए चलती है बाखली एसा नही है कि बाखली में लडाई कभी नही होती खेत कि मेड, गाय कि गौसाला , सब्जी का खेत किसी भी सवाल पर रंडी पात्तर हो सकती है। लेकिन इन सब के बाबजूद बाखली तो बाखली ही है, जो गाँव मे रहा हो वही इसे समझ सकता है। लेकिन अब इस तरह से बाखली का बसना और आबाद होना गुजरे ज़माने कि बात हो गई है। अब तो पैसो से तय होता है कों कहा रहेगा, अगर किसी के पास थोड़ा ज्यादा पैसा है तो वह खेत मे और बेहतर पक्का मकान बना लेता है, और ज्यादा है तो शहर मे, अब बाखली सिर्फ़ उनके लिए है जो किसी कारण पैसा नही जोड़ पाए। लेकिन प्यार कभी ख़तम नही होता ना आज भी बाखली मे रहने वाले लोग उसी तरह से रहते है।</div>Praveen kumar Bhatthttp://www.blogger.com/profile/15394964288363513598noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8286178103461187958.post-49018150036337739632009-04-15T23:02:00.004-07:002009-04-17T00:26:33.514-07:00स्वागत है आपका<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjuZ_RZseWvsO432eu-e9owzzkyeb-o6BKFtpBp21srIkXhj6641MB1-_jkz-GqUvFX6qdZgUkGCtQGMoeepaMXXm6J_0K9G9HZkCPVRAYdsTWb1FQHFeOkDNHUNbbdav0mD6-dA7wqotY/s1600-h/praveen.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5325182459774819986" style="FLOAT: left; MARGIN: 0px 10px 10px 0px; WIDTH: 76px; CURSOR: hand; HEIGHT: 97px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjuZ_RZseWvsO432eu-e9owzzkyeb-o6BKFtpBp21srIkXhj6641MB1-_jkz-GqUvFX6qdZgUkGCtQGMoeepaMXXm6J_0K9G9HZkCPVRAYdsTWb1FQHFeOkDNHUNbbdav0mD6-dA7wqotY/s320/praveen.jpg" border="0" /></a><br /><div>insideuttarakhand नाम के इस ब्लॉग में आपका स्वागत है, कोशिश होगी कि इसके जरिये आपको उत्तराखंड के बारे में बताया जाय।इस ब्लॉग के बारे में आप अपनी बेबाक ,बेलाग राय किसी भी माध्यम से कभी भी दे सकते है। </div><div><span class="">आपका</span> मित्र </div><div><span class="">प्रवीन</span> कुमार भट्ट </div><div>मेरा संपर्क - एन-३४ जाखन, राजपुर रोड , देहरादून। 248001 फोन: 0135-2104851,09412996386 </div>Praveen kumar Bhatthttp://www.blogger.com/profile/15394964288363513598noreply@blogger.com1