
पहाढ़ में एक प्रचलित शब्द है ग्वाल्या खेल। ग्वाल्या खेल मतलव ग्वालो का खेल। पहाढ़ में ग्वालो का ऐसा कोई खेल नहीं है जिसे इस तरह से पहचाना जाये लेकिन यह शब्द फिर भी खेल पर भारी है। असल में यह शब्द टाइमपास करने से जुड़ा हुआ है। पहाढ़ में जिस काम को लोग बेकार समझते है उसे ग्वाल्या खेल कहा जाता है। लेकिन जब यह ग्वाल्या खेल किसी अविष्कार का कारण बन जाये तो क्या कहेंगे ग्वाला जाते जाते और ग्वाल्या खेल खेलते ही अल्मोढ़े के गिरीश भट्ट ने नायाब खोज की है। गिरीश ने पहाढ़ में सबसे बेकार समजी जाने वाली चीड की पत्तियो को उपयोगी बना दिया है।
क्या आप सोच सकते है की चीड की सुईनुमा पत्तिया जिन्हें पहाढ़ में बेकार समझा जाता है को सुंदर कलाकृतियों में ढाला जा सकता है। पहली बार में शायद यह बात बचकाना लगे लेकिन अल्मोड़ा के निकल बटगल गाँव (शित्लाखेत) के रहने वाले गिरीश भट्ट ने यह कर दिखाया है। ग्वाला जाकर चीड की पत्तियों के साथ खेलते खेलते उन्होंने कब इन पत्तियों को सुंदर आकर देना सुरु कर दिया, इसका कुढ़ उन्हें भी एहसास नहीं हुआ। धीरे धीरे उनकी कलाकृतिया आकार लेने लगी तो उनका जज्बा बढता गया हालाँकि न तो कोई प्रशिक्स्यक था लेकिन गिरीश को उम्मीद थी कि एक दिन उसकी मेहनत जरुर रंग लाएगी। अब कुछ सालो के कुहासे और इंतज़ार के बाद गिरीश कि शानदार कलाकृतिया लोगो को खूब पसंद आ रही है। गिरीश चीड कि पत्तियों से टोकरी, हैट, पेन स्टैंड, चप्पल, गिलास और पर्स जैसी कलाकृतिया बखूबी बना रहे है।
इसी साल जनवरी में आयोजित नेशनल हन्द्लुम अक्स्पो में राज्य स्तरीय हस्तशिल्प पुरस्कार (द्वितीय) से नवाजे गए गिरीश भट्ट यू तो सालो से शौकिया तौर पर पिरूलो (चीड की सुखी हुई पत्तिया) से कलाकृतिया तयार कर रहे थे लेकिन 2008 से उन्होंने व्याव्सीक रूप से इसकी शुरुआत कि है। गिरीश को २००८ में ही हस्तशिल्प श्रेणी के लिए जिला स्तरीय उद्यमिता पुरस्कार भी मिल चूका है। सुन्दर कलाकृतियो कि अपनी यात्रा के बारे में गिरीश बताते है, " मैंने इसकी शुरुआत कुछ साल पहले खेल खेल मई ही की थी। पहले पहले मई टोपी या टोकरी जैसी चीजे बनाने कि कोशिश करता था लेकिन उनके डिजाइन उतने अच्छे नहीं बनते थे। धीरे धीरे इसमें शुधर आता गया। अब मेरे डिजाइन लोगो को पसंद आने लगे है। " देहरादून के नेशनल हन्द्लूम एक्सपो से पहले गिरीश १४ से २७ नवम्बर २००९ में दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित भारत अंतररास्ट्रीय व्यापार मेले में भी अपनी स्टाल लगा चुके है । यह स्टाल उनकी पहली स्टाल थी लेकिन फिर भी वे २५ हजार का सामन बेचने में कामयाब रहे। अंतररास्ट्रीय मेले में स्टाल लगाकर गिरीश काफी उत्साहित है।
देहरादून में आयोजित नेशनल हन्द्लूम एक्सपो में गिरीश के डिजाइन को खूब सराहा गया। लेकिन यहाँ उनकी बिक्री कुछ कम रही। यहाँ वे पंद्रह दिनों तक चले एक्सपो में केवल १५ हजार का सामआन ही बीएच पाए। गिरीश का कहना है कि उनका सामान पहाढ़ के लोग नहीं खरीदते है। इस तरह का सामान विदेशियों और शहर में रहने वाले लोगो को ही पसंद आता है। एसा नहीं है कि गिरीश कि बनायीं हुई चीजे बहुत महँगी है। उन्हें एक टोपी तयार करने में लगभग एक सप्ताह का समय लगता है, और इसकी कीमत साइज़ और क्वालिटी के हिसाब से ७०० से १५०० रुपीस तय कि जाती है। इस हिसाब से देखा जाय तो एक सप्ताह कि मेहनत से तयार किये गए किसी सिल्प कि कीमत इससे कम नहीं हो सकती। इसी तरह गिरीश के बनाये पेन स्टैंड कि कीमत १०० रुपीस, टोकरी कि कीमत ३००- ६०० रुपीस, चप्पल २५०-३००, ६ गिलासों कि कीमत ३००-६०० व पर्स की कीमत २५०० रुपीस राखी गयी है।
हन्द्लूम एक्सपो में गिरीश के साथ आये कैलाश चन्द्र भट्ट हस्तशिल्प और कला के प्रति गिरीश के समर्पण से काफी खुश है। साथ ही खुसी इस बात कि भी है कि अब गिरीश कि कला व्यावासिक रूप लेने लगी है। लेकिन खुसी के साथ कि उत्पादन के बाद कि स्थिथि को लेकर भी उनकी निराशा कम नहीं है। कैलाश चन्द्र भट्ट कहते है, " गिरीश ने बेकार समजी जाने वाली पिरूल से चीजे बनाकर एक खोज कि है। लेकिन यह खोज तब तक कामयाब नहीं हो सकती जब तक तयार माल को बेचने के लिए बाजार नहीं मिलेगा।"

बाजार और वयपार से जुडी परेसानियो को लेकर कैलाश कहते है कि हम जो भी सामान तयार कर रहे है वह बाहर के लोगो के मतलव का है लेकिन हमारे पास बाहर कोई भी स्टाल नहीं है। इतना ही नहीं कैलाश कि शिकायत सरकार को लेकर भी है। उनका कहना है कि सरकार ने अब तक इस कला को प्रोत्साहित करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया है। इस कला के विकास कि गुजारिस लेकर कैलाश पहले भी सीएम् को पत्र लिख चुके है। उन्होंने मुख मंत्री को सुझाव दिया था कि अगर इस कला का विकास किया जाय तो यह रोजगार का जरिया बन सकती है।
ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है... हिंदी में आपका लेखन सराहनीय है, इसी तरह तबियत से लिखते रहिये.
ReplyDeletebahut aachaa sir
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